नज़ीर बनारसी की शायरी

बेख़ौफ़ किरण
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रूत्ता-रूत्ता इश्क़ इस मंज़िल में लाया है मुझे
दर्द उठता है किसी को और तड़प जाता हूं मैं

अंधेरा मांगने आया था रोशनी की भीख
हम अपना घर न जलाते तो और क्या करते

बद-गुमानी को बढ़ाकर तुमने ये क्या कर दिया
खुद भी तन्हा हो गए मुझको भी तन्हा कर दिया

और तो कुछ न हुआ पी के बहक जाने से
बात महफिल से ही बाहर गई महजानी से

एक दीवाने को भी आए हैं समझाने कई
पहले मैं दीवाना था और अब हैं दीवाने कई

वो आइना हूं जो कभी कमरे में सजा था
अब गिर के जो टूटा हूं तो रस्ते में पड़ा हूं

है ज़िदादिली दौलत सब खर्च न कर देना
शायद कभी काम आए थोड़ी सी बचा रखना

हर ख़ता को नजर अन्दाज़ किये जाओ “नज़ीर”
जान दे दो मगर अपनों के सर इल्ज़ाम न दो

दुनिया है इक पड़ाव मुसाफिर के वास्ते
इक रात सांस ले के चलेंगे यहां से हम

इसको ही चाहिए कि अब संवरने के लिए
ज़िन्दगी है तेरा अक्स हुआ संग नहीं है

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